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Tuesday, October 26, 2010

NO POVERTY BUT STARVATION


There is something wrong with growth economics. After all, 18 years after India ushered in economic Liberalization, the promise of high growth to reduce poverty and hunger, has not worked. A report by Suresh Tendulkar, formerly chairman of Prime Minister's Economic Advisory Council, now estimates poverty at 37.2 per cent, an increase of roughly 10 per cent over the earlier estimates of 27.5 per cent in 2004-05. This means, an additional more than 100 million people have slipped below the poverty line in just four years. The number of poor is multiplying at a time when the number of billionaires has also increased. The economic wealth of Mere 30-odd rich families in India is equivalent to one third of the country's growth. The more the wealth Accumulating in the hands of these 30 families, the more will be country's economic growth. If you were to discount the economic growth resulting from the 6th pay commission, which is 1.9 per cent of the GDP, India's actual economic growth will slump to 4 per cent. reality is that the complicated arithmetic hides more than what it reveals. Poverty estimates were earlier based on nutritional criteria, which means based on the monthly income required to purchase 2,100 calories in the urban areas and 2,400 calories in the rural areas. Over the years, this measure came in for sharp criticism, and finally the Planning Commission suggested a new estimation method that is required to survive - includes food, fuel, light, clothing and footwear. Accordingly, the Tendulkar committee has worked out that 41.8 per cent of the population or approximately 450 million people survive on a monthly per capita consumption expenditure of Rs 447. In other words, break it down to a daily expenditure; it comes to bare Rs 14.50 paise. I wonder how cans the rural population earning more than Rs 14 and less than say even Rs 25 a day is expected to be over the poverty line. India's poverty line is actually a line of starvation I can say. The poverty line that is laid out actually becomes the upper limit the government must pledge to feed. People living below this line constitute the Below the Poverty Line (BPL) category, for which the government has to provide a legal guarantee to provide food. It therefore spells out the government subsidy that is required to distribute food among the poor. More the poverty line more is the food subsidy. If the government accepts Tendulkar committee report, the food subsidy bill will swell to Rs 47,917.62-crore, a sharp rise over the earlier subsidy of Rs 28,890.56-crore required to feed the BPL population with 25 kg of grains. This is primarily the reason why the government wants to keep the number of poor low. In other words, the poverty line reflects the number of people living in hunger. So poverty is not only empty pocket but here it means acute hunger. India's poverty estimates therefore are the most stringent in the world. I don't know the economic justification of hiding the true figures, but politically it makes terrible sense. Each government therefore is happy to gloss over the starvation figures in the guise of poverty estimates. I wonder when India will include a basket of essential good like footwear, cycles, sewing machines, solar lamps, water purifiers etc for the poor. This is simple economics, and not political compulsion as the media will like us to believe. Going back to the poverty line arithmetic, the 2007 Arjun Sengupta committee report (officially the report of the National Commission on Enterprise in Unorganized Sector), which had estimated that 77 per cent of the population or 836 million people, were unable to spend more than Rs 20 a day, is probably a correct reflection of the extent of prevailing poverty. In addition to monthly income, poverty estimates must incorporate the human development index as prepared by the United Nations Development Programme. India should therefore have two ways to classify the poor. The line of starvation, needing direct cash transfers in addition to the basic requirement of food supplies. And a Poverty line, needing not only food (but in lesser quantities) but also other economic necessities like sewing machines, water-purifiers, pressure cookers, etc. Saurabh Chauhan

Friday, October 8, 2010

दिशा बदलनी है..


राजनीति को दलदल कहा जाता है , की इसमें एक बार फंस गया वो निकल नही सकता वरन धंसता ही चला जाता है! ऐसा कहना मेरा नही बल्कि ये एक आम राय है, जो समाज रखता है! और राजनीति का नाम सुन कर अपना नाक मूह सिकोड़ देते है! लेकिन ऐसा है क्या इसमें कोई बता नही सकता! कोई कहता है कि अपराधीकरण कोई कहे व्यापारीकरण और भी कई विचार आते है! लेकिन ये सब बातें तो अपने समाज में भी विद्यमान है!

{जहा हम रहते है उसे हम समाज कहते है!
अपराध भी है यहाँ व्यापार भी है यहाँ
बुराइया भी भरी है दलदल जान पड़ता है
सामान भी है यहाँ , बाज़ार भी है यहाँ!}

तो राजनीति के बारे में ऐसा सोचना क्यों? मेरा मानना है कि राजनीति ही किसी देश की दिशा एवं दशा बदल सकती है लेकिन उसमे समाज की भागीदारी होना भी जरूरी है! युवाओं को शामिल होना भी जरूरी है, कुर्बानी किसे कहते है, अपने आप को तिल तिल जलाना किसे कहते है समाज का पुनर्निर्माण किसे कहते है , उस के क्या क्या लाभ हो सकते है ये सब बातो का ज्ञान होना हमारे लिए जरूरी है! आज में तो इसे विदेशी ताकतों का षड़यंत्र ही कहूँगा और अपनी जो राजनीतिक व्यवस्था है है उसकी भी कमजोरी नज़र पड़ती है! षड़यंत्र यह है की अपने देश को आर्थिक रूप से पंगु कर देना और यहाँ का जो सामाजिक और संस्कृतक ढांचा है उसे छिन्न भिन्न कर देना ताकि समाज में कोई भी ऐसी भावना न रहे जिस से उसका अपने राष्ट्र से कोई सरोकार हो! आज इस षड्यंत्र का " सेम्पल " भी कई बार सामने आता है जब समाज जड़ हो जाता है भावना शून्य हो जाता है
अब राजनीति को देखा जाए तो यहाँ भी कई तरह के तत्व विद्यमान है! बाज़ार भी है व्यापार भी है लेकिन इस बात के लिए हम राजनीति गन्दा खेल है ऐसा नही कह सकते बल्कि हमे सामूहिक जिम्मेदारी लेनी होगी और स्वीकारना होगा इस सच को की राजनीति में जो भी नेतिक पतन हुआ है उस के लिए हम सब जिम्मेवार है! एक नेता को टीवी पर रिश्वत लेते दिखाया जाता है तो हम कई दिन उसकी चर्चा करते है लेकिन वो रिश्वत देने वाला कोन था ? वो तो राजनेता नही था कोई सांसद नही था ! उस बात पर समाज मौन रहता है! जिम्मेवारी लेने से हम डरते है तो हमे किसी की बुराई करने का कोई अधिकार नही है! आज कभी राजनीति की बात आये तो कथित आधुनिक वर्ग अपनी कन्नी काट लेता है और जब कोई काम हो तो रिश्वत जेब में ले के अपनी नाक इसी राजनीति के चरणों में रख देता है! अगर एक पल मान लिया जाए की राजनीति गन्दी है तो भी में ये कहूँगा की उसका अपना एक आस्तित्व है गन्दी है तो है लेकिन इन कथित सामाजिक ठेकेदारों का दोगलापन जो सामने आत है इसे क्या कहेंगे ? लेकिन राजनीति एक गन्दा खेल नही बल्कि समाज का हे दबाव रहता है और कई बार मेहरबानी रहती है कि इसे गन्दा कहा जाता है! हमे यह नही भूलना चाहिए कि देश कि बागडोर हमारे हाथ में है और नौजवान इस देश के पहिये है! सब दुरुस्त रहेगा तो देश रुपी वाहन आगे बढ पायेगा १ लेकिन आज केवल राजनीति और नेताओ की निंदा करना हे परम कर्त्तव्य समझा जाता है! कोई बात हुई तो राजनीति की सहमत आ जाती है! क्या यह सही है क्या यह समाधान है? नही!!
ये समाधान नही हो सकता वरन समस्या को बढाने वाला जरूर हो सकता है आज समाज जागृत नही है यदि है तो सिर्फ अपने अधिकारों के लिए! देश का क्या कोई जनता नही और न ही कोई जानना चाहता है! सब डॉक्टर इंजीनीर बन कर खूब मालामाल होना चाहते है दुनिया कि चकाचौन्द से मुकाबला करना चाहते है लेकिन मेरा एक सवाल है जीवन यापन ठीक है रहन सहन में चकाचौंध भी ठीक है लेकिन इस सब में समाज का जड़ हो जाना और अपनी व्यवस्था का गला घोंट देना सही नही है! अपना देश मेरा पहला कैरियर है! इसकी चिंता जरूरी है आराम भी मिलेगा सुकून भी होगा केवल तभी जब अपना देश मज़बूत होगा! इसकी मजबूती के भी कही द्वार है! केवल तकनीक ही सब कुछ नही है बल्कि संस्कृति और विचार भी जरूरी है इस देश की पहचान आज भी संस्कृति और विचारों से है! इसका संरक्षण करना और भारत का जो विचार है जिसके कारण भारत अपने आप में एक विचारधरा है जिसे हम भारतीयता कहते है! जब यह मज़बूत होगा तब हर घर में रोटी होगी रौशनी होगी और ये रौशनी सार्व विशव को रौशन करेगी ऐसे मेरा मानना है! लेकिन आज के हालात देश को सही दिशा में ले जा रहे है ऐसा नही लगता है! आज समाज का नेतिक पतन इस देश को डुबो रहा है ! राजनीती को जो हमने पंगु बनाया है उसी कारण आज यहाँ निराशावाद का बोलबाला हो रहा है! अपना देश आंतरिक दुश्मनों से और बाहय दुश्मनों से जूझ रहा है! हम कहते है कि तलवारों की धारो से इतिहास हमारा चलता है और आज ये कहने कि नौबत है कि तलवार की धार पर हम चल रहे है! इसके जिम्मेवार हम है! राजनीति कोई गन्दा खेल नही बल्कि राजनीति समाज के विकास का उत्थान का एक माध्यम है बशर्ते इसमें समाज की सकारात्मक भागीदारी हो! वोट की राजनीति नही विकास की राजनीति हो! ऐसा एक कदम इस देश कि दिशा बदल सकता है दिशा बदली तो दशा बदल सकती है और जब दशा बदल जाएगी तो भारत देश पुन: विश्व गुरु के सिंहासन पर बेठेगा ऐसा मेरा मानना भी है स्वप्न भी और में ये चाहता हु कि ये हर भारतीय का स्वप्न हो!

Wednesday, October 6, 2010

राष्ट्रवाद और आतंकवाद में फर्क करना समझें राहुल



राहुल गाँधी ने संघ के बारे में जो बयान दिया है और जो बतुकी तुलना की है वो शर्मनाक है! इस से भी गंभीर बात ये है की देश के युवाओं को रिझाने की कोशिश करने वाले राहुल गाँधी असलियत से वाकिफ नही है! मातृभूमि पर जब जब भी संकट आये तब तब संघ के स्वयंसेवक आगे आये! देश के आज़ाद होते ही जो लड़ाई हुई थी कश्मीर में जो हवाई पट्टी थी वहा बर्फ जमी थी! उसको हटाने कोन आया था! राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आया था! ६२ को जब चीन से लड़ाई हुई तो सेना की मदद के लिए संघ आगे आया! संघ देश को जोड़ने वाली विचारधरा है! संस्कृति और राष्ट्रवाद की संरक्षक है! और राहुल गाँधी बेतुकी बात कर रहे है! राहुल गाँधी एक पार्टी के नेता है! और ऑटोमेटिक नेता है! तो विषय की समझ न होना लाज़मी है! राहुल गांधी इस तरह से राष्ट्रवाद का मज़ाक न उडाये! राष्ट्रवाद और आतंकवाद में फर्क करना सीखे यही उनके लिए हितकारी होगा! ये संघ है जो राष्ट्रवाद की बात करता है! अब ज़रा राहुल ये बताये की चरार-इ-शरीफ में बिरयानी खाने और खिलाने वाले कोन थे? वहा क्या गुल खिलाये जा रहे थे? राहुल क्या कहेंगे?
कोन क्या कहेगा? है कोई जवाब? आतंकियों के साथ बिरयानी खाने वाली पार्टी के नेता आज बेतुकी बात कर रहे है!
संघ देश को जोड़ता आया है आगे भी जोड़ेगा! संघ राष्ट्रवाद की बात करता है, भारत की बात करता है परम वैभव की बात करता है! कभी आतंकियों के साथ बिरयानी नही खाता!
भगवा हे लहराया था भगवा ही लहराएगा
जब संघ दंड लहराएगा तो होश ठिकाने आएगा

Monday, October 4, 2010

आँखों में स्वप्न


जा तेरे स्वप्न बड़े हुए जा रहे है .....
आँखों में पानी है सपने है जवानी है
तेरे है सपने तू हे अपरिचित है
ज़िन्दगी कि देखो केसी ये कहानी है ..
चेहरे का तेज देखो क्या ये कहता है ..
मेरी इन आँखों में एक सपना भी रहता है ..
सपने में रंग केसे में भरूँगा ...
काम है कठिन पूरा केसे में करूँगा ...
देखती है दुनिया तमाशबीन बनके ..
रंग कोई थामे नही यही सची कहानी है ...
चलता हू लाद्खादा के में इधर उधर देखता हू ...
कही तो मंजिल होगी ..लेकिन राह देखता हू ..
कोई तो आये जो रंग ले के कह दे ...
थाम ले इनको रंग अपनी मंजिल को
सपने न रह जाए आँखों में मेरी
आंसुओ की धाराओ में बहने भी लगे है ...
मिली है ठोकरे सभी से मुझको
कुछ रंग रहे है सपने कुछ तंज सहने भी लगे है
एक विचार की जरुरत है रंगने लगे है सपने
आँखों में तेरी पलने लगे है सपने ..

Friday, October 1, 2010

देश अपना खादी अपनी

आज अपना देश दो दिवंगत विभूतियों का जन्मदिन मना रहा है! एक गाँधी जी जो राष्ट्र पिता के नाम से जाने जाते है! दुसरे लाल बहादुर शास्त्री जी जो देश के कुछ श्रेष्ट प्रधानमंत्रियो में गिने जाते है! जय जवान जय किसान का नारा हो या गांधी जी का भारत छोडो इसमें स्वदेशी की महक थी ! खादी ने भी एक अस्त्र के रूप में काम किया था! जब देश में फिरंगियों ने विदेशी चीजों का प्रचालन बड़ा दिया था तब भी खादी ही अस्त्र था ! आज भी देश में एक संकट है! हम विदेशियों के मायाजाल में फंस चुके है! विदेशी कपडे या कुछ और जो हम खरीदते है सारा का सारा अपनी कमाई का पैसा बहार भेज देते है ! और अपने देश के बेरोजगार तो बेरोजगार और जो भी काम करने वाले है उनका काम बंद होता जा रहा है! खादी की बात करे तो देश में काफी लोग इस काम में लगे है वे सभी अपने भाई है! उनके हाथ मज़बूत हो ऐसा करना अपना कर्त्तव्य है! आज दो महान विभूतियों की जयंती पर मेरा ये आवाहन है कि आज से स्वदेशी कि शुरुआत करे! खादी आरामदायक होती है और महंगी भी नही है! आज से छूट भी है तो खादी जरूर खरीदे और पहने भी ! इसे आपने जीवन का हिस्सा बनाये! अपने भाइयो के हाथ मज़बूत होंगे तो देश मज़बूत होगा!
देश अपना खादी अपनी
वन्दे मातरम